लम्हा लम्हा हर पल
गुजरा..
जिसके आँचल में बचपन
गुजरा ..
सवांरने में हमारी ज़िन्दगी जिसके ज़िन्दगी का सफ़र गुजरा..
रात रात भर जाग जाग
कर नींदों का कारवां चला ..
जिसके ख्वाबों में
भी मेरा ही चेहरा रहा ..
जिसके सुबह शुरू
होती मुझसे ..
जिसके शाम में भी
मैं ही थी शामिल ...
वो हसाती भी है मेरे
दर्द में डूब जाती भी है ...
भर गयी जो अश्कों से
आखें मेरी ..
उसकी आखें भी नम हो
जाती ..
एक “माँ” ही तो है
जो पास रहकर ...
और दूर होकर भी हर
पल साथ निभाती है ...
वो साथ हो या ना हो
अपने होने के एहसास कराती है ...
जब कभी ज़िन्दगी से
चोट मिली ..
लब पर तेरा ही नाम
आया ..
तेरे ही हौसलों से
बुने मैंने ख्वाब मेरे ..
तेरे ही इरादों ने
दी पंखों को उड़ान मेरे ..
जब कभी लड़खादाएं कदम..
तूने संभाल लिया ..
मेरे हर गम को अपने
दामन में थाम कर ..
मेरी फिक्र को भी
अपना ही नाम दिया ..
“माँ” एक शब्द नहीं,
एक पूरा “जहां” है..
जिसकी ममता से
सींचता एक ज़िन्दगी का फलसफा है ...