यौन हिंसा
सूनसान हूँ मैं
कितनी
डरावनी, भयानक, काली
मालूम हुआ आज
क्यों कहते है मुझे
रात
बस अँधेरे के हूँ
मैं साथ
अक्सर गुनगुनाती
हवाएं
भी आज उदास है
उन्हें भी यौन हिंसा
कि
पीड़ा का हुआ, एहसास
है
मेरा अन्धकार बेबस
लाचार
थरथरा उठा देख यौन
हिंसा का अत्याचार
संवेदनहीनता के
कुरूप चेहरे से
ये ज़मीन, ये आसमान
अशांत है
रोने लगी हर आरज़ू,
हर आरमान है
मन में उठता एक ही
सवाल है
क्यों मानव ने हैवानियत
का नकाब ओढ लिया
क्यों मानव बन गए है
दानव
यौन हिंसा के दर्द
से
कभी मासूम कुमारी
हुई मजबूर
कभी नादान बच्चे का कोमल
हृदय हुआ चूर
ये क्षणिक कुकृत्य
कर देता है जीवन को विकृत्य
भोग तृष्णा की अंधी
अभिलाषा से
टूटी ना जाने कितनी
खूबसूरत तस्वीर
दो पल की अशिष्टता
ने
रुसवा की है ज़िन्दगी
बिन भूल मिली
शर्मिंदगी
दिया शारीरिक एवं
मानसिक ज़ख्म
जिसकी
टीस से है पलके नम
मैं रात, भयभीत हूँ
देखकर ये घिनोनी
तस्वीर
सोचती हूँ
क्या, मानवता नहीं
होती भयभीत सोचकर इसकी तासीर
ऐ खुदा तू क्यों रूठ
गया
कि इंसानों का
इंसानियत से नाता ही
टूट गया....
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