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भारतीय सिनेमा जगत
ने सफलता पूर्वक अपने सौ साल से ज्यादा पूरे कर लिए है और पिछले सौ सालों में
सिनेमा में बहुत सारे परिवर्तन हुए है | आज सिनेमा की
स्क्रिप्ट, प्रस्तुतीकरण, शूटिंग की लोकेशन सब
कुछ बदल चूका है | आज साल में एक दो सामाजिक सन्देश देती हुई
फिल्में जरूर रिलीज़ होती है पर ज़मीनी हकीकत से जुडी फिल्में देखने को नहीं मिलती
है | ग्रामीण भारत की दशा आज भी निराशाजनक बनी हुई है
पर अब इसे सिल्वर स्क्रीन पर देखने का मौका बहुत कम मिल रहा है | जबकि भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत किये गए आज़ाद
भारत की आर्थिक, सामाजिक और जाति आधारित जनगणना के ताज़े आकड़ों ने
साफ़ कर दिया है भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बहुत कमजोर है | ताजा आकड़ों के अनुसार गाँव में निवास करने वाले
लोगों में से केवल 10 प्रतिशत ही वेतनभोगी है | बेशक 1991 के बाद हुए उदारीकरण
ने आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में बदलाव किये और भारतीय शहर की तस्वीर बदली लेकिन आज
भी हमारे देश के मजदूरों के पास पक्के मकान नहीं है उन्हें रात खुले आकाश के नीचे
या कच्चे झोपोड़ों में ही बितानी पड़ती है और इसलिए मौसम की बेरुखी इन्हें हमेशा
सताती रहती है | देश के 10.69 करोड़
लोग अभावग्रस्त है हाल में सरकार द्वारा प्रस्तुत किये गए इस निराशाजनक जनगणना से
ग्रामीण भारत की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर प्रतीत होती है | पिछले कुछ सालों के पन्ने पलटें तो मज़दूरों पर
आधारित मुख्य धारा की फिल्में लगभग ना के बराबर हो गई है, पुरानी ज़मीनी हकीकत से जुड़ीं फिल्मों की जगह आज
की मसाला फिल्मों ने ले ली है | भारत में आज भी
मजदूर और किसान का जीवन संघर्षमय बना हुआ है लेकिन अब गरीब मजदूर और किसान की
ज़िन्दगी पर आधारित फिल्में बहुत कम देखने को मिलती है |
भारतीय सिनेमा जगत
ने शुरुआती दौड़ में सामाजिक विषय को लेकर कई सारी फिल्में बनायीं गयी है | इसमें कुछ फिल्में गरीब मजबूर किसान के जीवन पर
केन्द्रित थी तो कुछ बेबस मजदूर के जीवन के इर्द गिर्द घुमती हुई थी और कुछ अन्य
निम्न श्रेणी के पेशे वालों के संघर्ष को जीवंत करती हुई | कई फिल्म निर्माताओं ने गरीब किसानो और मजदूरों
तथा अन्य निम्न श्रेणी के पेशे वालों के जीवन के दैनिक संघर्ष और उनकी
सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष की कहानी को इतनी खूबसूरती एवं भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत
किया गया की ये दुनिया भर के लिए एक प्रेरणास्त्रोत बन गयी | कुछ फिल्मों को उस ज़माने का ट्रेंड सेटर भी माना
जाता था | 1953 में बिमल रॉय द्वारा निर्देशित फिल्म “दो बीघा ज़मीन” ने गरीब
किसान की मजबूरियों को बड़ी ही खूबी से दिखाया गया है | फिल्म एक छोटे किसान –शम्भू (बलराज साहनी) के जीवन के इर्द गिर्द
घुमती है जिसके पास पूरे परिवार का पेट पालने के लिए सिर्फ़ दो बीघा ज़मीन ही है
और कई सालों से उसके गाँव में लगातार सूखा पड़ रहा है जिससे शम्भू और उसका परिवार
बदहाली का शिकार हो जाता हैं | इसी क्रम में 1957 में महबूब खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मदर इंडिया’ भारतीय किसान नारी
के संघर्ष की मार्मिक कथावस्तु है, यह ग्रामीण साहूकार
सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती हुई नारी की हृदयवेदक कहानी है। हृषिकेश
मुखर्जी द्वारा निर्देशित “नमक हराम” में प्रबंधन बनाम
मजदूरों की कहानी दिखाई गयी है | इसमें सोमू (राजेश
खन्ना) और विक्की (अमिताभ बच्चन) की गहरी और स्थायी दोस्ती होने के बावजूद वर्ग
विभाजन की वजह से दोनों की राह अलग होते हुए दिखाया गया है । वही यश चोप्रा द्वारा
निर्देशित फिल्म “काला पत्थर” में निर्देशक की
सहानुभूति कोयले की खान के कार्यकर्ताओं के साथ स्पष्ट रूप से दिखाई देती है | गरीबों के दशा को दिलीप कुमार ने भी बड़े परदे पर
जीवंत किया है, उनकी फिल्म “मजदूर” में उस दौड़ के मजदूर की परेशानियों से दर्शको से
रूबरू कराया गया है | दो बीघा ज़मीन के बाद 1959 में पुनः बलराज सहनी क्रिशन चोपड़ा द्वारा
निर्देशित फिल्म “हीरा-मोती” में गरीब किसान की
भूमिका में नज़र आये | “हीरा-मोती” विक्रमपुर गाँव में
रह रहे धुरी (बलराज सहनी) और उसकी पत्नी रजिया (निरुपमा रॉय) और एक बहन चंपा
(शुभ्हा खोटे) के गरीब जीवन शैली की कथावस्तु है | धुरी एक
किसान है जिसके पास छोटा सा खेत और दो बैल, हीरा और मोती है। “हीरा मोती” फिल्म जमींदारी
व्यवस्था की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसका नायक शोषण के
विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित करता है । इसी क्रम में मनमोहन देसाइ द्वारा
निर्देशित फिल्म “कूली” में इकबाल (अमिताभ
बच्चन) मुंबई रेलवे स्टेशन पर एक कुली है और कुली के अधिकारों के लिए लड़ने की
प्रतिज्ञा लेता है | हिंदी सिनेमा में हर वर्ग चाहे किसान हो, मजदूर हो या कोई अन्य गरीब तबका, बड़े परदे पर उनके जीवन के संघर्ष की कहानी को
मनमोहक रूप से पिरोने की सफल कोशिश की गयी | मजदूर के अधिकारों
की पृष्ठभूमि पर आधारित कथावस्तु हो या आमतौर पर अपने गांव से शहर की ओर पलायन
करने के लिए मजबूर ग्रामीण की कहानी हो, ज़मीनी हकीकत से जुड़े
समाजवादी विषय को उठाने की कोशिश की गयी | वर्ष 2001 में आशुतोष गवारीकर निर्देशित “लगान” में आमिर खान ने जब
पहली बार ग्रामीण भारत को चित्रित किया तो दर्शकों ने बाहें फैला कर इसका स्वागत
किया | इसमें ब्रिटिश राज द्वारा निर्धारित ‘कर’ के लिए गरीब भारतीय
समुदाय पर अत्याचार किया जाता है और ये कहानी एक नाटकीय मोड़ तब ले लेती है जब लगान
बचाने के लिए भारतीय ब्रिटिश अधिकारियों के साथ क्रिकेट का खेल खेलते है और उन्हें
हरा कर, ब्रिटिश राज द्वारा लगाये गए “करों” से 3 साल के लिए मुक्त हो जाते है | वही 2010 में आमिर खान
निर्मित “पीपली लाइव” गरीब नत्था के जीवन
के इर्द गिर्द घुमती कथावस्तु है जिसकी जमीन बैंक हडपने वाली है क्योंकि वह लोन
चुकाने में नाकामयाब रहा है, उसके पास पैसे नहीं
है। जब वह एक नेता से मदद लेने पहुचता है तो उसे सुझाव दिया जाता है की जीते
जी तो सरकार उसकी मदद नहीं कर सकती, लेकिन अगर वह
आत्महत्या कर ले तो उसे मुआवजे के रूप में उसे एक लाख रुपए मिल सकते हैं और यहाँ
से उसके जीवन के संघर्ष की शुरुवात होती है | पिछले वर्ष 2014 में रिलीज़ हुई हंसल मेहता की फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ एक प्रवासी गरीब की
कथानक पर आधारित है जो बेहतर जिंदगी की आस में मुम्बई आ जाता है जहा उसके संघर्ष
के सफ़र की शुरुवात होती है,
जिसे बड़े ही भावनात्मक ढंग से दिखाया गया है
लेकिन उसे दर्शकों का ख़ासा प्यार नहीं मिला | ऐसी अनगिनत फिल्में
है जिसके माध्यम से दर्शकों ने यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर आधारित कहानियों को देखा
और उनकी मनभावन अभिव्यक्तियों से प्रभावित भी हुए है |
भारत सरकार द्वारा
प्रस्तुत किया गए आज़ाद भारत की आर्थिक, सामाजिक और जाति
आधारित जनगणना के ताज़ा आकड़ों से ज्ञात होता है की आज भी ग्रामीण भारत की दशा में
ख़ासा परिवर्तन नहीं हुआ है भारत में गरीबी और आर्थिक तंगी के चलते आज भी बड़े
पैमाने पर किसान और गरीब आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाते है, लेकिन अब फिल्में इस तरह की ज़मीनी हकीकत की
पृष्ठभूमि पर कम ही बनती है, आज का दौड़ मसाला
फिल्मों का दौड़ है |
बीते ज़माने के हीरो
और आज के हीरो की परिभाषा बदल गयी है | आज के हीरो के पास
सारी सुख सुविधाएं होती है | उसके पास बड़ी गाड़ी, ब्रांडेड कपडे, जूते, गॉगल्स, हाई-टेक्नोलॉजी के
गैजेट्स सारी सुविधा होती है क्योंकि आज के दर्शक अपने हीरो को उसी रूप में देखना
चाहते है और दर्शक अपने हीरो का अनुसरण भी करते है | आज शायद
ही कुछ ख़ास वर्ग के दर्शक होंगे जो गरीबी और ज़मीनी सच्चाई पर आधारित कथावस्तु को
देखना पसंद करते हो | आज का दौड़ “सौ करोड़ क्लब” का दौड़ है और शायद बॉक्स ऑफिस पर “सौ करोड़ क्लब” का
लक्ष्य होने के कारण भी निर्माता निर्देशक ऐसे कथावस्तु पर फिल्म बनाने की हिम्मत
नहीं जुटा पाते है |
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